सामाजिक >> पत्थर ऊपर पानी पत्थर ऊपर पानीरवीन्द्र वर्मा
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रवीन्द्र वर्मा ने ‘पत्थर ऊपर पानी’ में संबंधों की आज छलछलाती तरलता को शब्दों में लाने का उपक्रम किया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रवीन्द्र वर्मा ने ‘पत्थर ऊपर पानी’ में संबंधों की आज
छलछलाती तरलता को शब्दों में लाने का उपक्रम किया है जो पत्थर से भी
ज्यादा सख्त और संवेदन शून्य होती जा रही है। दरअसल वह पानी सूख गया है जो
रिश्ते-नातों की जड़ें सींचता था और आत्मीयता की शाखें हरी-भरी रखता था।
हार्दिकता की सूखी हुई नदी की ढूंढ ही इस रचना का केन्द्रीय विमर्श है।
संबंधों के साथ ही व्यक्ति और वक्त भी व्यतीत होते गये हैं। यह गुज़र जाने का भाव गहरे मार्मिक मृत्युबोध को व्यक्त करता है। रिश्ते टूटते हैं तो मर जाते हैं। नैना और पौ. चंद्रा हों या सीतादेवी और उनके पुत्र इसी भयानक आपदा को झेलते हैं।
इस छोटे उपन्यास में मृत्यु का बड़ा अहसास कथा-प्रसंग भर नहीं है। संबंधों के अंत को गहराने वाली लेखकीय दार्शनिक युक्ति-मात्र भी उसे नहीं कह सकते। वह एक स्थायी पीड़ा और ऐसी लड़ी है जिसमें हम जीवन को खोकर उसे फिर से पाते हैं। यही खोने-पाने का महान अनुभव यहाँ मृत्यु की त्रासदी में उजागर होता है। इस मायने में यह जीवन के अनुभव को रचना में महसूस करना है।
इस उपन्यास की काव्यात्मक भाषा एवं अन्य उल्लेखनीय विशेषता है। बिम्ब रूपक में बदलकर आशयों को विस्तार और बड़े अर्थ देते हैं। वस्तुतः जीवन के विच्छिन्न सुरताल को पकड़ने की इच्छा और बची हुई गूंज को सुरक्षित रखने की सद्भावना की प्रस्तुति के लिए इस भाषिक विधान से बेहतर और कोई विकल्प नहीं हो सकता था। इस भाषा में गद्य का गाम्भीर्य और स्पष्ट वाक्य-विन्यास के साथ कविता की स्वतः स्फूर्त शक्ति समन्वित है। इस संदर्भ में यह कथा रचना कविता का आस्वाद भी उपलब्ध कराती है।
संबंधों के साथ ही व्यक्ति और वक्त भी व्यतीत होते गये हैं। यह गुज़र जाने का भाव गहरे मार्मिक मृत्युबोध को व्यक्त करता है। रिश्ते टूटते हैं तो मर जाते हैं। नैना और पौ. चंद्रा हों या सीतादेवी और उनके पुत्र इसी भयानक आपदा को झेलते हैं।
इस छोटे उपन्यास में मृत्यु का बड़ा अहसास कथा-प्रसंग भर नहीं है। संबंधों के अंत को गहराने वाली लेखकीय दार्शनिक युक्ति-मात्र भी उसे नहीं कह सकते। वह एक स्थायी पीड़ा और ऐसी लड़ी है जिसमें हम जीवन को खोकर उसे फिर से पाते हैं। यही खोने-पाने का महान अनुभव यहाँ मृत्यु की त्रासदी में उजागर होता है। इस मायने में यह जीवन के अनुभव को रचना में महसूस करना है।
इस उपन्यास की काव्यात्मक भाषा एवं अन्य उल्लेखनीय विशेषता है। बिम्ब रूपक में बदलकर आशयों को विस्तार और बड़े अर्थ देते हैं। वस्तुतः जीवन के विच्छिन्न सुरताल को पकड़ने की इच्छा और बची हुई गूंज को सुरक्षित रखने की सद्भावना की प्रस्तुति के लिए इस भाषिक विधान से बेहतर और कोई विकल्प नहीं हो सकता था। इस भाषा में गद्य का गाम्भीर्य और स्पष्ट वाक्य-विन्यास के साथ कविता की स्वतः स्फूर्त शक्ति समन्वित है। इस संदर्भ में यह कथा रचना कविता का आस्वाद भी उपलब्ध कराती है।
ये तो दो दिन की जिन्दगानी
जैसा पत्थर ऊपर पानी
जैसा पत्थर ऊपर पानी
-कबीर
1
ऐसी गर्मी कभी नहीं पड़ी थी।
लोग शहर में एक-दूसरे से इन दिनों यही कहते पाये जाते। वे गर्मी की बात एक-दूसरे से इस आजिज़ी से करते कि ऐसा लगता जैसे उन्हें यह भ्रम है कि बात करने से गर्मी कम होगी। गर्मी कम नहीं होती। अलबत्ता शहर में पानी कम हो रहा था। हर रोज़ कुओं का तल कुछ नीचे खिसकता लगता। जो भी तालाब थे, सूख गये थे। तालाबों की सीढ़ियों में तालाबों का तसव्वुर था। शहर की दास्तान कहती नदी सिकुड़ रही थी। उसकी धारा अपनी नंगी रेत पर इस तरह इधर-उधर जगह बदलती लगती जैसे राह पर कोई स्त्री अपनी बौना आँचल सँवार रही हो।
नदी की देह शहर के पुलों के नीचे डुबकी लगाकर फिर रेत पर चमकने लगती। सूरज असमंजस में रेत पर मृगतृष्णा के खेल खेलता जैसे रेत और पानी का फ़र्क मिटा रहा हो।
जब सूरज पश्चिम की ओर जा रहा था और शहर के नलों में अचानक पानी आ गया था तो एक घर में एक शिशु एक नल में लगी पानी की एक प्लास्टिक की ट्यूब से खेल रहा था। वह गर्मी की किसी से क्या शिकायत करता ? उसे बोलना नहीं आता। भाषा उसके कानों में एक आवाज़ थी जैसे उसके होंठों पर एक आवाज़ थी—किसी भी आवाज़ की तरह। वह कभी-कभी चीखता या हँसने लगता। मगर वह चुप था। वह टुकुर-टुकुर अपनी कमीज़ की जेब की ओर देख रहा था जिसमें ट्यूब का पानी जा रहा था। पानी जेब में जाता था, लेकिन जेब भरती नहीं थी। जेब खाली थी जैसे पानी के पहले खाली थी। जेब के एक ओर बहता पानी था, दूसरी ओर कुछ नहीं था।
शिशु हैरान था।
सूर्य आकाश में ठिठका, फिर एकाएक आगे बढ़ गया। प्रोफ़ेसर चन्द्रा को लगा कि शायद ऐसा खेल पहले हुआ है। सूर्य चन्द्रमा नहीं था जिसे वे मुस्कुराता हुआ देखते। आकाश में धूप ऐसी थी कि आँखें चौंधिया जातीं जैसे कोई रेगिस्तानी इलाका हो। कोई पक्षी नहीं था। आसमान धूप में घुल गया था।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा हैरान शिशु को अपलक निहार रहे थे। उनकी हैरानी कब विस्मय हुई उन्हें पता नहीं चला जैसे शिशु को पता नहीं चला था। वे शिशु को जिस नवजात विस्मय से देख रहे थे, उसी तरह शून्य पानी को देख रहा था। इसी विस्मय की कहानी वैदिक ऋचाओं से न्यूटन के धरती पर गिरते सेव तक फैली थी।
आँखें खुली की खुली रह गयी थीं। जो बोध हुआ था, पूरा नहीं था। अधूरापन जारी था। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही थी और सूर्य की परिक्रमा लगा रही थी, जो स्वयं ऐसे ब्रह्मांड में घूम रहा था जिसमें अनगिनत सूर्य थे। ब्रह्मांड आहिस्ता-आहिस्ता गुब्बारे-सा फैल रहा था। कहाँ ? क्यों ? कुछ ठीक से पता नहीं था। अटकल थे—जिसे कभी लोग भौतिकी कहते, कभी दर्शन।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा को एकाएक लगा कि शिशु किसी तन्द्रा के घेरे में है। वह ट्यूब से जेब में झरते पानी को एकटक देख रहा था, जिसके नीचे ख़ाली ज़ेब थी। उसे पानी के अँधेरे का पता नहीं था जो ख़ाली जेब के पीछे उसके देह में था। न उसे धधकते सूर्य का पता था। उसे सूर्य और पानी के रिश्ते का भी पता नहीं था। उसे यह भी पता नहीं था कि यही रिश्ता उसकी देह के अँधेरे में है।
विस्मय का अन्त नहीं था।
न समय का अन्त था।
वे आगे बढ़ने लगे और उन्होंने शिशु को दोनों हाथों से उठाकर गोद में ले लिया।
पानी शिशु की देह से उनकी देह में झरने लगा जैसे पानी।
कोई भेद न करता हो। पानी का उल्लास अब शिशु में जागा। वह हँसने लगा। उसके दो दाँत चमके जब प्रोफ़ेसर चन्द्रा हँसे तो उनके दाँतों की पंक्ति होठों के बीच फैल गयी।
ट्यूब का पानी धरती पर फैल रहा था।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा ने शिशु को उसी सहजता से अपनी गोद में उठाया था जिस स्वतः स्फूर्ति शैली में एक सुबह शिशु प्रोफे़सर चन्द्रा की पीठ पर बैठ गया था। वे पंट लेते थे। उनकी साँस आधी अन्दर आधी बाहर थी। असल में वे सर्पासन की एक मुद्रा में थे जब खाली पीठ देखकर शिशु उस पर सवारी गाँठने का लोभ संवरण न कर सका था। उनकी आपस में मेल मुलाकात नहीं थी। मगर शिशु को शायद नंगी पीठ खाली लगी थी जैसे कोई कुर्सी खाली होती है।
उन्होंने पलट कर देखा था और वे हँस पड़े। उन्हें लगा था कि भला कोई हवा के झोंके, पानी की बौछार या पेड़ से गिरे फल पर कैसे गुस्सा कर सकता है। उन्होंने उठकर उसे गोद में उठा लिया था। तभी नौकरानी भागती हुई दूसरे कमरे से आयी थी और अपने बच्चे को प्रोफ़ेसर की गोद में देखकर ठिठक गयी थी। उन्होंने उसे अपना काम करने को कहा था। शिशु उनकी गोद में हँस रहा था जैसे वह उनकी पीठ पर बैठकर हँसा था। उसे मालूम नहीं था कि वह नौकरानी का बच्चा है।
उसका नाम गोपाल था।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा को एकाएक हैरानी हुई कि उन्हें अब गर्मी नहीं लग रही थी। गोद में गोपाल हँस रहा था। गर्मी बाहर हवा और धूप और आसमान में चली गयी थी, जिनसे शहर घिरा था। गर्मी न लगने की वजह से उनकी छाती पर गोपाल की देह से बहता पानी भी था। गोपाल ने हँसते हुए उनके गाल पर एक चपत मारी, फिर चूमा और उछलकर उनकी ऐनक अपने हाथ में ले ली। उन्होंने उसे आहिस्ता से नीचे उतारा और छीनी ऐनक बरामद की। इस बीच दुनिया धुँधली हो गयी थी जैसे संसार छितरे बिम्बों और तिलिस्मी छायाओं की माया हो।
उन्होंने जब ऐनक नाक पर रखी तो फिर समूची दुनिया आँखों के आगे चमकी। लॉन में अशोक के पेड़ की छाया लम्बी होकर बरामदे को छू रही थी। वे लॉन के दूसरे छोर पर खड़े थे, जहाँ पानी का नल था। लॉन की घास सूख रही थी। क्यारियों में फूल सूख गये थे। एक सप्ताह से घास और फूलों को थोड़ा पानी चोरी से ही मिल पाता जब प्रोफ़ेसर घर में न होते या सो रहे होते और उसी वक्त नल में पानी आ जाता। उनका पत्नी से घास और फूलों को पानी देने के मुद्दे पर एक बार महाभारत हो चुका है। उनका कहना था कि जब शहर में आदमियों के लिए पानी नहीं है तो तुम फूलों को पानी कैसे दे सकती हो ?
‘‘क्या मतलब ?’’ गायत्री ने पूछा था।
‘‘क्या तुमने अखबार में नवाबगंज, मौलवीगंज और इन्दिरा नगर में पानी की किल्लत की खबरें नहीं पढ़ीं ? पुराने शहर में लोग नलों के आगे हाथों में बाल्टियां लिये लाइन में खड़े हैं। गोमती सूख रही है...और तुम अपने निजी उद्यान में फूलों की खेती करना चाहती हो ?’’
‘‘सब बस्तियों की पानी की सप्लाई अलग-अलग है,’’ गायत्री बोली, ‘‘हर बस्ती अपनी सप्लाई देखे और खर्च करे।’’
प्रोफ़ेसर हँसे।
‘‘सारी बस्तियों की सप्लाई का स्रोत एक ही है’’, वे बोले, ‘‘गोमती, जो सूख रही है।’’
गायत्री निरुत्तर हुई।
फिर वह पलटी, ‘‘देश में करीब चालीस फीसदी लोग अधपेट सोते हैं क्या यह सही है ?’’
‘‘हाँ’’
‘‘फिर तुम रोज़ दो पेग शराब कैसे पी सकते हो ?’’
प्रोफ़ेसर चुप थे।
‘‘जिस घर का मालिक रोज शराब पीता है, उस घर की घास को पानी भी नसीब नहीं होगा ?’’ वह चमकी।
प्रोफ़ेसर ने पत्नी को तेज़ नजरों से देखा। फिर वे गरजे, ‘‘घर के मालिक की हैसियत से मैं हुक्म देता हूँ कि आज से लॉन में पानी नहीं बिखरेगा।’’
‘‘कब तक ?’’
‘‘जब तक मैं आज्ञा निरस्त न करूँ।’’
‘‘फिर जब वे उल्टे पाँव बरामदा छोड़ रहे थे, उन्होंने दरवाजे पर पत्नी की हँसी सुनी थी। क्या यह भ्रम था ?
‘‘मैं चोरी करूँगी।’’, गायत्री ने पीठ पर कहा था।
‘‘क्या ?’’ वे पलटे थे।
‘‘मैं डाका डालूँगी।’’
वे हँस पड़े थे, ‘‘फूलों के लिए ?’’
‘‘हाँ’’
यह कहना मुश्किल होगा कि लॉन की सूखी घास और क्यारियों में दो-चार मुरझाये फूलों को देखकर प्रोफ़ेसर चन्द्रा खुश थे या उदास। उनके चेहरे पर उदासी को अलबत्ता मौसम की मार से जोड़ा जा सकता था। गोपाल घर के अन्दर चला गया था। सूरज भी अपने घर में घुस गया था और उसने दरवाजे बन्द कर लिये थे। अवध की मशहूर शाम आसमान में उजड़ी-उजड़ी लग रही थी। सूरज के बन्द दरवाज़ों से आता रेशा-रेशा उजाला ही बचा था।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा ने घड़ी देखी, कपड़े बदले स्कूटर स्टार्ट किया। आज शनिवार था ! कॉफ़ी-हाउस की शाम का दिन था। लेकिन पेट्रोल कल से रिजर्व में चल रहा था। पेट्रोल लेना जरूरी था। जैसे ही उन्होंने पेट्रोल पम्प में स्कूटर मोड़ा, उसकी नज़र सड़क के किनारे खड़ी सम्भ्रान्त महिला पर पड़ी। जब वे पेट्रोल लेकर लौटे, तब भी वह महिला वहीं खड़ी थी। इसीलिए उन्होंने गौर से देखा : वह रो रही थी। प्रोफ़ेसर को लगा जैसे वह स्कूटर अपने आप रुक गया। तब उन्होंने सोचा कि कॉफ़ी-हाउस को देर हो जायेगी और मित्र इंतज़ार करेंगे। लेकिन वृ्द्धा उनके सामने अकेली खड़ी रो रही थी।
‘‘क्या हुआ ?’’वे वृद्धा के सामने खड़े थे। कुछ नहीं’’, वृद्धा ने सुबकते हुए कहा।
‘‘बिना बात तो बच्चा भी नहीं रोता’’, वे हँसे। वे इस बात पर भी हँसे थे कि यह निश्चित नहीं कर पाये थे कि वृद्घा को ‘बहिन कहें या ‘अम्माँ’।
‘‘अम्माँ’’, उनके मुँह से अचानक निकला, ‘‘कुछ बोलोगी तो आँसू रुकेंगे।’’
उन्होंने आँचल से अपने आँसू पोंछे। फिर कहा, ‘‘मैं इन्तज़ार कर रही हूँ।’’
‘‘कौन आ रहा है ?’’
‘‘मेरा बेटा। वह मुझे छोड़ गया है।’’
कहाँ गया ?’’
‘‘उसने कहा, तुम यहीं रुको, मैं पाँच मिनट में एक काम करके आया।’’
कितनी देर हो गयी ?’’
‘‘तब धूप फैली थी।’’
प्रोफ़ेसर चुप हो गये। मगर चुप्पी आँसुओं का हल नहीं थी।
‘‘आप कहाँ से आ रही हैं ?’’ उन्होंने, पूछा, ‘‘कहाँ जा रही हैं ?’’
फिर अचानक उनकी आँखों में आँसू छलक आये। वे भर्राये गले से बोलीं, ‘‘एक बेटे के घर से आ रही हूँ। दूसरे बेटे के घर जा रही हूँ.’’
प्रोफ़ेसर फिर चुप।
‘‘दूसरा बेटा कहाँ रहता है ?’’
‘‘अस्पताल के सामने।’’
‘‘कौन-सा अस्पताल ?’’
‘‘नाम नहीं मालूम।’’
शहर में तो दसियों अस्पताल हैं, अम्माँ।’’ वे हँसे, ‘‘अच्छा, क्या दूसरा बेटा ही आपको यहाँ छोड़ गया है ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘क्या आपको वह पहले का पता मालूम है।’ ‘‘वह बाग के पिछवाड़े रहता है।’’
‘‘कौन-सा बाग ?’’
‘‘नाम नहीं मालूम।’’
वृद्धा ने सफ़ेद वायलिन की साड़ी पहने थी। उसके नाक, कान और गले में सोने के आभूषण थे। गोरे चेहरे पर कहीं कोई झुर्री थी जो उसके सौन्दर्य को पुख्ता बनाती थी। उसके नैन-नक़्श तीखे थे, जो आँसुओं से धुँधले नहीं पड़ते थे।
जब प्रोफ़ेसर चन्द्रा ने उनसे स्कूटर पर बैठने को कहा तो उन्होंने पूछा :
‘‘कहा ? मुझे कहाँ ले जाओगे ?’’
‘‘पहले अपने घर ले जाऊँगा, अम्माँ’’, उन्होंने कहा, ‘‘फिर वह अस्पताल या बाग ढूँढ़ूँगा, जहाँ आपके बेटे रहते हैं।’’
लेकिन जो बेटा छोड़ गया, वह लेने क्यों नहीं आया ? अम्माँ ने बताया कि वह लाल मारुति में था। जहाँ वह गया था, वहाँ अम्माँ को भी ले जा सकता था। यदि कोई बहुत निजी काम था तो अम्माँ को मारुति की पिछली सीट पर छोड़कर जा सकता था ! किसी के घर, दफ़्तर या दुकान में वह मारुति हाथ में लेकर तो घुसा नहीं होगा ? जहाँ बाहर मारुति खड़ी रहती, वहीं अम्माँ मारुति में बैठी रहतीं। मारुति से सड़क पर उतारकर अम्माँ को खड़ा करने की क्या मजबूरी हो सकती थी ? अम्माँ क्या मारुति थीं जिन्हें काम निकलने पर सड़क पर छोड़ दिया गया था ? लेकिन बेटे ने लौटकर मारुति को सड़क से फिर बरामद कर लिया होगा क्योंकि वह मारुति के बिना आगे कैसे जाता ? आगे जाने के लिए मारुति की ज़रूरत थी। आगे जाने के लिए अम्माँ की जरूरत नहीं थी। इसीलिए अम्माँ को सड़क पर छोड़ दिया था। प्रोफ़ेसर चन्द्रा ने यही सोचते हुए स्कूटर स्टार्ट किया था और आगे बढ़ गये थे।
अगले मोड़ पर स्कूटर ऐसे मुड़ा जैसे वे अकेले बैठे हों। उन्हें शंका हुई। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। वृद्धा नहीं थी। उन्होंने स्कूटर पीछे मोड़ा और तेज़ कर दिया। पेट्रोल पम्प के सामने वृद्धा उसी तरह सड़क पर सड़क ताकती खड़ी थी जैसे उन्होंने उसे पहली बार देखा था। सड़क पर वृद्धा का अकेला खड़ा होना इतना मुकम्मल था कि प्रोफ़ेसर को एक बार यह भी संदेह हुआ कि उन्होंने वृद्धा से कोई बात की थी। वे अकेली निःसंग सड़क पर साँवले उजाले में खड़ी कहीं दूर देख रही थी जैसे वहाँ से कोई आवाज़ आ रही हो।
सड़क पर गाड़ियों और स्कूटरों की आवाज़ों के बीच प्रोफ़ेसर ने वृद्धा के सामने खड़े होकर पूछा :
‘‘अम्माँ, आप यहीं रह गयीं ?’’
‘‘मुझे लगा,’’ अम्माँ बोलीं, ‘‘हरीश की मारुति बिगड़ गयी होगी। वह ठीक कराके आयेगा।’’
‘‘अम्माँ...’’ प्रोफ़ेसर का स्वर कातर था।
‘‘हाँ’’, वृद्धा ने अपनी नज़रें ऊपर उठायीं।
‘‘सड़क आपका घर नहीं है।’’
वृद्धा चुप।
‘‘आप कब तक सड़क पर अकेली खड़ी रहेंगी ?’’ प्रोफ़ेसर ने वृद्धा के आभूषणों पर एक नज़र डाली।
‘‘जब तक हरीश लौटकर नहीं आता।’’
‘‘वह आयेगा नहीं,’’ एकाएक प्रोफ़ेसर के मुँह से निकला, ‘‘उसे लाना पड़ेगा।’’
‘‘क् क्..क्यों ?’’ वृद्धा ने नज़रें ऊपर उठायीं, ‘‘वह क्यों नही आयेगा ?’’
‘‘क्योंकि वह भूल गया है,’’ प्रोफ़ेसर बोले।
वृद्धा उन्हें अचरज से देखती रही।
‘‘उसे याद दिलाना पड़ेगा’’, प्रोफ़ेसर ने फिर कहा।
जब प्रोफ़ेसर ने अम्माँ को घर ले जाकर अपनी पत्नी से मिलाया और पत्नी को दूसरे कमरे में ले जाकर कहा कि अम्माँ का बेटा उन्हें पेट्रोल-पम्प पर छोड़कर उन्हें भूल गया है तो पत्नी को यकीन नहीं हुआ। उसकी पहली आपत्ति तो यही थी कि शक्ल-सूरत और वेश-भूषा से अम्माँ भले घर की लगती हैं—भला, उनके बेटे को उनकी दो रोटियाँ भारी कैसे पड़ सकती हैं ? बात दो रोटियों की नहीं है, प्रोफ़ेसर ने तर्क दिया, बात याद रखने की है। हम वही याद रखते हैं, जो याद रखना चाहते हैं। क्या कोई बेटा माँ को भूलना चाहेगा ? पत्नी ने पलटकर पूछा। प्रोफ़ेसर क्या कहते ? वे यही बोले कि अम्माँ के साथ यही हुआ है। जब तर्क-वितर्क चल रहा था तो प्रोफ़ेसर के पिता अकेली धोती पहने कमरे में आ गये। उन्होंने पूछा कि बैठक में कौन बैठा है ? फिर दास्तान सुनकर बोले कि चन्दर ठीक कहता है।
प्रोफ़ेसर ने पत्नी से कहा कि मुझे कॉफ़ी-हाउस जाना ज़रूरी है। तुम अम्माँ का खयाल रखो। कल इतवार है। अम्माँ के किसी बेटे का पता ज़रूर चल जायेगा। कॉफ़ी-हाउस जाना क्यों ज़रूरी है ? पत्नी के मन में फिर यही सवाल उठा। लेकिन उसने दबा दिया।
जब प्रोफ़ेसर साहब स्कूटर में ‘किक’ मार रहे थे तो अन्दर उनके पिता धोती पर कुर्ता पहनकर बैठक में जा रहे थे जहाँ वृद्धा बैठी थीं।
लोग शहर में एक-दूसरे से इन दिनों यही कहते पाये जाते। वे गर्मी की बात एक-दूसरे से इस आजिज़ी से करते कि ऐसा लगता जैसे उन्हें यह भ्रम है कि बात करने से गर्मी कम होगी। गर्मी कम नहीं होती। अलबत्ता शहर में पानी कम हो रहा था। हर रोज़ कुओं का तल कुछ नीचे खिसकता लगता। जो भी तालाब थे, सूख गये थे। तालाबों की सीढ़ियों में तालाबों का तसव्वुर था। शहर की दास्तान कहती नदी सिकुड़ रही थी। उसकी धारा अपनी नंगी रेत पर इस तरह इधर-उधर जगह बदलती लगती जैसे राह पर कोई स्त्री अपनी बौना आँचल सँवार रही हो।
नदी की देह शहर के पुलों के नीचे डुबकी लगाकर फिर रेत पर चमकने लगती। सूरज असमंजस में रेत पर मृगतृष्णा के खेल खेलता जैसे रेत और पानी का फ़र्क मिटा रहा हो।
जब सूरज पश्चिम की ओर जा रहा था और शहर के नलों में अचानक पानी आ गया था तो एक घर में एक शिशु एक नल में लगी पानी की एक प्लास्टिक की ट्यूब से खेल रहा था। वह गर्मी की किसी से क्या शिकायत करता ? उसे बोलना नहीं आता। भाषा उसके कानों में एक आवाज़ थी जैसे उसके होंठों पर एक आवाज़ थी—किसी भी आवाज़ की तरह। वह कभी-कभी चीखता या हँसने लगता। मगर वह चुप था। वह टुकुर-टुकुर अपनी कमीज़ की जेब की ओर देख रहा था जिसमें ट्यूब का पानी जा रहा था। पानी जेब में जाता था, लेकिन जेब भरती नहीं थी। जेब खाली थी जैसे पानी के पहले खाली थी। जेब के एक ओर बहता पानी था, दूसरी ओर कुछ नहीं था।
शिशु हैरान था।
सूर्य आकाश में ठिठका, फिर एकाएक आगे बढ़ गया। प्रोफ़ेसर चन्द्रा को लगा कि शायद ऐसा खेल पहले हुआ है। सूर्य चन्द्रमा नहीं था जिसे वे मुस्कुराता हुआ देखते। आकाश में धूप ऐसी थी कि आँखें चौंधिया जातीं जैसे कोई रेगिस्तानी इलाका हो। कोई पक्षी नहीं था। आसमान धूप में घुल गया था।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा हैरान शिशु को अपलक निहार रहे थे। उनकी हैरानी कब विस्मय हुई उन्हें पता नहीं चला जैसे शिशु को पता नहीं चला था। वे शिशु को जिस नवजात विस्मय से देख रहे थे, उसी तरह शून्य पानी को देख रहा था। इसी विस्मय की कहानी वैदिक ऋचाओं से न्यूटन के धरती पर गिरते सेव तक फैली थी।
आँखें खुली की खुली रह गयी थीं। जो बोध हुआ था, पूरा नहीं था। अधूरापन जारी था। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही थी और सूर्य की परिक्रमा लगा रही थी, जो स्वयं ऐसे ब्रह्मांड में घूम रहा था जिसमें अनगिनत सूर्य थे। ब्रह्मांड आहिस्ता-आहिस्ता गुब्बारे-सा फैल रहा था। कहाँ ? क्यों ? कुछ ठीक से पता नहीं था। अटकल थे—जिसे कभी लोग भौतिकी कहते, कभी दर्शन।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा को एकाएक लगा कि शिशु किसी तन्द्रा के घेरे में है। वह ट्यूब से जेब में झरते पानी को एकटक देख रहा था, जिसके नीचे ख़ाली ज़ेब थी। उसे पानी के अँधेरे का पता नहीं था जो ख़ाली जेब के पीछे उसके देह में था। न उसे धधकते सूर्य का पता था। उसे सूर्य और पानी के रिश्ते का भी पता नहीं था। उसे यह भी पता नहीं था कि यही रिश्ता उसकी देह के अँधेरे में है।
विस्मय का अन्त नहीं था।
न समय का अन्त था।
वे आगे बढ़ने लगे और उन्होंने शिशु को दोनों हाथों से उठाकर गोद में ले लिया।
पानी शिशु की देह से उनकी देह में झरने लगा जैसे पानी।
कोई भेद न करता हो। पानी का उल्लास अब शिशु में जागा। वह हँसने लगा। उसके दो दाँत चमके जब प्रोफ़ेसर चन्द्रा हँसे तो उनके दाँतों की पंक्ति होठों के बीच फैल गयी।
ट्यूब का पानी धरती पर फैल रहा था।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा ने शिशु को उसी सहजता से अपनी गोद में उठाया था जिस स्वतः स्फूर्ति शैली में एक सुबह शिशु प्रोफे़सर चन्द्रा की पीठ पर बैठ गया था। वे पंट लेते थे। उनकी साँस आधी अन्दर आधी बाहर थी। असल में वे सर्पासन की एक मुद्रा में थे जब खाली पीठ देखकर शिशु उस पर सवारी गाँठने का लोभ संवरण न कर सका था। उनकी आपस में मेल मुलाकात नहीं थी। मगर शिशु को शायद नंगी पीठ खाली लगी थी जैसे कोई कुर्सी खाली होती है।
उन्होंने पलट कर देखा था और वे हँस पड़े। उन्हें लगा था कि भला कोई हवा के झोंके, पानी की बौछार या पेड़ से गिरे फल पर कैसे गुस्सा कर सकता है। उन्होंने उठकर उसे गोद में उठा लिया था। तभी नौकरानी भागती हुई दूसरे कमरे से आयी थी और अपने बच्चे को प्रोफ़ेसर की गोद में देखकर ठिठक गयी थी। उन्होंने उसे अपना काम करने को कहा था। शिशु उनकी गोद में हँस रहा था जैसे वह उनकी पीठ पर बैठकर हँसा था। उसे मालूम नहीं था कि वह नौकरानी का बच्चा है।
उसका नाम गोपाल था।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा को एकाएक हैरानी हुई कि उन्हें अब गर्मी नहीं लग रही थी। गोद में गोपाल हँस रहा था। गर्मी बाहर हवा और धूप और आसमान में चली गयी थी, जिनसे शहर घिरा था। गर्मी न लगने की वजह से उनकी छाती पर गोपाल की देह से बहता पानी भी था। गोपाल ने हँसते हुए उनके गाल पर एक चपत मारी, फिर चूमा और उछलकर उनकी ऐनक अपने हाथ में ले ली। उन्होंने उसे आहिस्ता से नीचे उतारा और छीनी ऐनक बरामद की। इस बीच दुनिया धुँधली हो गयी थी जैसे संसार छितरे बिम्बों और तिलिस्मी छायाओं की माया हो।
उन्होंने जब ऐनक नाक पर रखी तो फिर समूची दुनिया आँखों के आगे चमकी। लॉन में अशोक के पेड़ की छाया लम्बी होकर बरामदे को छू रही थी। वे लॉन के दूसरे छोर पर खड़े थे, जहाँ पानी का नल था। लॉन की घास सूख रही थी। क्यारियों में फूल सूख गये थे। एक सप्ताह से घास और फूलों को थोड़ा पानी चोरी से ही मिल पाता जब प्रोफ़ेसर घर में न होते या सो रहे होते और उसी वक्त नल में पानी आ जाता। उनका पत्नी से घास और फूलों को पानी देने के मुद्दे पर एक बार महाभारत हो चुका है। उनका कहना था कि जब शहर में आदमियों के लिए पानी नहीं है तो तुम फूलों को पानी कैसे दे सकती हो ?
‘‘क्या मतलब ?’’ गायत्री ने पूछा था।
‘‘क्या तुमने अखबार में नवाबगंज, मौलवीगंज और इन्दिरा नगर में पानी की किल्लत की खबरें नहीं पढ़ीं ? पुराने शहर में लोग नलों के आगे हाथों में बाल्टियां लिये लाइन में खड़े हैं। गोमती सूख रही है...और तुम अपने निजी उद्यान में फूलों की खेती करना चाहती हो ?’’
‘‘सब बस्तियों की पानी की सप्लाई अलग-अलग है,’’ गायत्री बोली, ‘‘हर बस्ती अपनी सप्लाई देखे और खर्च करे।’’
प्रोफ़ेसर हँसे।
‘‘सारी बस्तियों की सप्लाई का स्रोत एक ही है’’, वे बोले, ‘‘गोमती, जो सूख रही है।’’
गायत्री निरुत्तर हुई।
फिर वह पलटी, ‘‘देश में करीब चालीस फीसदी लोग अधपेट सोते हैं क्या यह सही है ?’’
‘‘हाँ’’
‘‘फिर तुम रोज़ दो पेग शराब कैसे पी सकते हो ?’’
प्रोफ़ेसर चुप थे।
‘‘जिस घर का मालिक रोज शराब पीता है, उस घर की घास को पानी भी नसीब नहीं होगा ?’’ वह चमकी।
प्रोफ़ेसर ने पत्नी को तेज़ नजरों से देखा। फिर वे गरजे, ‘‘घर के मालिक की हैसियत से मैं हुक्म देता हूँ कि आज से लॉन में पानी नहीं बिखरेगा।’’
‘‘कब तक ?’’
‘‘जब तक मैं आज्ञा निरस्त न करूँ।’’
‘‘फिर जब वे उल्टे पाँव बरामदा छोड़ रहे थे, उन्होंने दरवाजे पर पत्नी की हँसी सुनी थी। क्या यह भ्रम था ?
‘‘मैं चोरी करूँगी।’’, गायत्री ने पीठ पर कहा था।
‘‘क्या ?’’ वे पलटे थे।
‘‘मैं डाका डालूँगी।’’
वे हँस पड़े थे, ‘‘फूलों के लिए ?’’
‘‘हाँ’’
यह कहना मुश्किल होगा कि लॉन की सूखी घास और क्यारियों में दो-चार मुरझाये फूलों को देखकर प्रोफ़ेसर चन्द्रा खुश थे या उदास। उनके चेहरे पर उदासी को अलबत्ता मौसम की मार से जोड़ा जा सकता था। गोपाल घर के अन्दर चला गया था। सूरज भी अपने घर में घुस गया था और उसने दरवाजे बन्द कर लिये थे। अवध की मशहूर शाम आसमान में उजड़ी-उजड़ी लग रही थी। सूरज के बन्द दरवाज़ों से आता रेशा-रेशा उजाला ही बचा था।
प्रोफ़ेसर चन्द्रा ने घड़ी देखी, कपड़े बदले स्कूटर स्टार्ट किया। आज शनिवार था ! कॉफ़ी-हाउस की शाम का दिन था। लेकिन पेट्रोल कल से रिजर्व में चल रहा था। पेट्रोल लेना जरूरी था। जैसे ही उन्होंने पेट्रोल पम्प में स्कूटर मोड़ा, उसकी नज़र सड़क के किनारे खड़ी सम्भ्रान्त महिला पर पड़ी। जब वे पेट्रोल लेकर लौटे, तब भी वह महिला वहीं खड़ी थी। इसीलिए उन्होंने गौर से देखा : वह रो रही थी। प्रोफ़ेसर को लगा जैसे वह स्कूटर अपने आप रुक गया। तब उन्होंने सोचा कि कॉफ़ी-हाउस को देर हो जायेगी और मित्र इंतज़ार करेंगे। लेकिन वृ्द्धा उनके सामने अकेली खड़ी रो रही थी।
‘‘क्या हुआ ?’’वे वृद्धा के सामने खड़े थे। कुछ नहीं’’, वृद्धा ने सुबकते हुए कहा।
‘‘बिना बात तो बच्चा भी नहीं रोता’’, वे हँसे। वे इस बात पर भी हँसे थे कि यह निश्चित नहीं कर पाये थे कि वृद्घा को ‘बहिन कहें या ‘अम्माँ’।
‘‘अम्माँ’’, उनके मुँह से अचानक निकला, ‘‘कुछ बोलोगी तो आँसू रुकेंगे।’’
उन्होंने आँचल से अपने आँसू पोंछे। फिर कहा, ‘‘मैं इन्तज़ार कर रही हूँ।’’
‘‘कौन आ रहा है ?’’
‘‘मेरा बेटा। वह मुझे छोड़ गया है।’’
कहाँ गया ?’’
‘‘उसने कहा, तुम यहीं रुको, मैं पाँच मिनट में एक काम करके आया।’’
कितनी देर हो गयी ?’’
‘‘तब धूप फैली थी।’’
प्रोफ़ेसर चुप हो गये। मगर चुप्पी आँसुओं का हल नहीं थी।
‘‘आप कहाँ से आ रही हैं ?’’ उन्होंने, पूछा, ‘‘कहाँ जा रही हैं ?’’
फिर अचानक उनकी आँखों में आँसू छलक आये। वे भर्राये गले से बोलीं, ‘‘एक बेटे के घर से आ रही हूँ। दूसरे बेटे के घर जा रही हूँ.’’
प्रोफ़ेसर फिर चुप।
‘‘दूसरा बेटा कहाँ रहता है ?’’
‘‘अस्पताल के सामने।’’
‘‘कौन-सा अस्पताल ?’’
‘‘नाम नहीं मालूम।’’
शहर में तो दसियों अस्पताल हैं, अम्माँ।’’ वे हँसे, ‘‘अच्छा, क्या दूसरा बेटा ही आपको यहाँ छोड़ गया है ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘क्या आपको वह पहले का पता मालूम है।’ ‘‘वह बाग के पिछवाड़े रहता है।’’
‘‘कौन-सा बाग ?’’
‘‘नाम नहीं मालूम।’’
वृद्धा ने सफ़ेद वायलिन की साड़ी पहने थी। उसके नाक, कान और गले में सोने के आभूषण थे। गोरे चेहरे पर कहीं कोई झुर्री थी जो उसके सौन्दर्य को पुख्ता बनाती थी। उसके नैन-नक़्श तीखे थे, जो आँसुओं से धुँधले नहीं पड़ते थे।
जब प्रोफ़ेसर चन्द्रा ने उनसे स्कूटर पर बैठने को कहा तो उन्होंने पूछा :
‘‘कहा ? मुझे कहाँ ले जाओगे ?’’
‘‘पहले अपने घर ले जाऊँगा, अम्माँ’’, उन्होंने कहा, ‘‘फिर वह अस्पताल या बाग ढूँढ़ूँगा, जहाँ आपके बेटे रहते हैं।’’
लेकिन जो बेटा छोड़ गया, वह लेने क्यों नहीं आया ? अम्माँ ने बताया कि वह लाल मारुति में था। जहाँ वह गया था, वहाँ अम्माँ को भी ले जा सकता था। यदि कोई बहुत निजी काम था तो अम्माँ को मारुति की पिछली सीट पर छोड़कर जा सकता था ! किसी के घर, दफ़्तर या दुकान में वह मारुति हाथ में लेकर तो घुसा नहीं होगा ? जहाँ बाहर मारुति खड़ी रहती, वहीं अम्माँ मारुति में बैठी रहतीं। मारुति से सड़क पर उतारकर अम्माँ को खड़ा करने की क्या मजबूरी हो सकती थी ? अम्माँ क्या मारुति थीं जिन्हें काम निकलने पर सड़क पर छोड़ दिया गया था ? लेकिन बेटे ने लौटकर मारुति को सड़क से फिर बरामद कर लिया होगा क्योंकि वह मारुति के बिना आगे कैसे जाता ? आगे जाने के लिए मारुति की ज़रूरत थी। आगे जाने के लिए अम्माँ की जरूरत नहीं थी। इसीलिए अम्माँ को सड़क पर छोड़ दिया था। प्रोफ़ेसर चन्द्रा ने यही सोचते हुए स्कूटर स्टार्ट किया था और आगे बढ़ गये थे।
अगले मोड़ पर स्कूटर ऐसे मुड़ा जैसे वे अकेले बैठे हों। उन्हें शंका हुई। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। वृद्धा नहीं थी। उन्होंने स्कूटर पीछे मोड़ा और तेज़ कर दिया। पेट्रोल पम्प के सामने वृद्धा उसी तरह सड़क पर सड़क ताकती खड़ी थी जैसे उन्होंने उसे पहली बार देखा था। सड़क पर वृद्धा का अकेला खड़ा होना इतना मुकम्मल था कि प्रोफ़ेसर को एक बार यह भी संदेह हुआ कि उन्होंने वृद्धा से कोई बात की थी। वे अकेली निःसंग सड़क पर साँवले उजाले में खड़ी कहीं दूर देख रही थी जैसे वहाँ से कोई आवाज़ आ रही हो।
सड़क पर गाड़ियों और स्कूटरों की आवाज़ों के बीच प्रोफ़ेसर ने वृद्धा के सामने खड़े होकर पूछा :
‘‘अम्माँ, आप यहीं रह गयीं ?’’
‘‘मुझे लगा,’’ अम्माँ बोलीं, ‘‘हरीश की मारुति बिगड़ गयी होगी। वह ठीक कराके आयेगा।’’
‘‘अम्माँ...’’ प्रोफ़ेसर का स्वर कातर था।
‘‘हाँ’’, वृद्धा ने अपनी नज़रें ऊपर उठायीं।
‘‘सड़क आपका घर नहीं है।’’
वृद्धा चुप।
‘‘आप कब तक सड़क पर अकेली खड़ी रहेंगी ?’’ प्रोफ़ेसर ने वृद्धा के आभूषणों पर एक नज़र डाली।
‘‘जब तक हरीश लौटकर नहीं आता।’’
‘‘वह आयेगा नहीं,’’ एकाएक प्रोफ़ेसर के मुँह से निकला, ‘‘उसे लाना पड़ेगा।’’
‘‘क् क्..क्यों ?’’ वृद्धा ने नज़रें ऊपर उठायीं, ‘‘वह क्यों नही आयेगा ?’’
‘‘क्योंकि वह भूल गया है,’’ प्रोफ़ेसर बोले।
वृद्धा उन्हें अचरज से देखती रही।
‘‘उसे याद दिलाना पड़ेगा’’, प्रोफ़ेसर ने फिर कहा।
जब प्रोफ़ेसर ने अम्माँ को घर ले जाकर अपनी पत्नी से मिलाया और पत्नी को दूसरे कमरे में ले जाकर कहा कि अम्माँ का बेटा उन्हें पेट्रोल-पम्प पर छोड़कर उन्हें भूल गया है तो पत्नी को यकीन नहीं हुआ। उसकी पहली आपत्ति तो यही थी कि शक्ल-सूरत और वेश-भूषा से अम्माँ भले घर की लगती हैं—भला, उनके बेटे को उनकी दो रोटियाँ भारी कैसे पड़ सकती हैं ? बात दो रोटियों की नहीं है, प्रोफ़ेसर ने तर्क दिया, बात याद रखने की है। हम वही याद रखते हैं, जो याद रखना चाहते हैं। क्या कोई बेटा माँ को भूलना चाहेगा ? पत्नी ने पलटकर पूछा। प्रोफ़ेसर क्या कहते ? वे यही बोले कि अम्माँ के साथ यही हुआ है। जब तर्क-वितर्क चल रहा था तो प्रोफ़ेसर के पिता अकेली धोती पहने कमरे में आ गये। उन्होंने पूछा कि बैठक में कौन बैठा है ? फिर दास्तान सुनकर बोले कि चन्दर ठीक कहता है।
प्रोफ़ेसर ने पत्नी से कहा कि मुझे कॉफ़ी-हाउस जाना ज़रूरी है। तुम अम्माँ का खयाल रखो। कल इतवार है। अम्माँ के किसी बेटे का पता ज़रूर चल जायेगा। कॉफ़ी-हाउस जाना क्यों ज़रूरी है ? पत्नी के मन में फिर यही सवाल उठा। लेकिन उसने दबा दिया।
जब प्रोफ़ेसर साहब स्कूटर में ‘किक’ मार रहे थे तो अन्दर उनके पिता धोती पर कुर्ता पहनकर बैठक में जा रहे थे जहाँ वृद्धा बैठी थीं।
2
वृद्धा का नाम सीता देवी था।
इस समय वे प्रोफ़ेसर चन्द्रा की बैठक में अकेली बैठी थीं, यद्यपि उन्हें प्रोफ़ेसर चन्द्रा का नाम मालूम नहीं था। यह अजनबीपन बैठक की हवा, कुर्सियों, दीवारों और दीवारों पर लगे चार चित्रों में भी था जिनकी ओर सीता देवी ठहर-ठहरकर देख चुकी थीं। उनकी आँखों पर सुनहरा चश्मा लगा था, जिसके पार उन्हें साफ दिखाई देता था। दीवारों पर लगी तस्वीरें बैठक का अजनबीपन बढ़ा रही थीं। यह बेगानापन कोतवाली जेल, अस्पताल या अनाथाश्रम की याद दिला सकता था।
सीता देवी यहाँ खुद नहीं आयी थीं। वे तो दीवार पर लगी तस्वीरों के चेहरों को जानती तक नहीं थीं—सिवाय बुद्ध के चित्र के, जिसे किसी भी दीवार पर पहचाना जा सकता था। एक अजनबी उन्हें अपने घर में ले आया था। वह उनका अस्थायी बेटा बन गया था और कहता था कि मैं तुम्हारा असली बेटा ढूँढ़ दूँगा। यह सोचकर सीता देवी हँसी। सीता देवी यह सोचकर हँसी कि उनका बेटा नहीं खोया था—बेटे ने अपनी माँ को खो दिया था। हरीश जब छोटा था, तब भी यही करता था। जो चीज़ उसे अच्छी नहीं लगती थी, उसे वह खो देता था। उसे बचपन में खाकी रंग पसन्द नहीं था। एक दिन वह स्कूल से धारीदार जांघियाँ पहने लौटा था और उसने ऐलान किया था, ‘‘मैं तैरना सीखने निकर उतारकर तालाब में उतरा। जब बाहर आया तो निकर गायब था।’’ हरीश के पिता ने कहा था कि खोयी निकर की पुलिस में एफ। आई। आर। नहीं होती। तो क्या मैं आज हरीश का खाकी निकर हो गयी ?
क्या मैं इस उम्र में तैरना सीखने के बहाने तालाब में डूब सकती हूँ ? सीता देवी ने सोचा।
इस समय वे प्रोफ़ेसर चन्द्रा की बैठक में अकेली बैठी थीं, यद्यपि उन्हें प्रोफ़ेसर चन्द्रा का नाम मालूम नहीं था। यह अजनबीपन बैठक की हवा, कुर्सियों, दीवारों और दीवारों पर लगे चार चित्रों में भी था जिनकी ओर सीता देवी ठहर-ठहरकर देख चुकी थीं। उनकी आँखों पर सुनहरा चश्मा लगा था, जिसके पार उन्हें साफ दिखाई देता था। दीवारों पर लगी तस्वीरें बैठक का अजनबीपन बढ़ा रही थीं। यह बेगानापन कोतवाली जेल, अस्पताल या अनाथाश्रम की याद दिला सकता था।
सीता देवी यहाँ खुद नहीं आयी थीं। वे तो दीवार पर लगी तस्वीरों के चेहरों को जानती तक नहीं थीं—सिवाय बुद्ध के चित्र के, जिसे किसी भी दीवार पर पहचाना जा सकता था। एक अजनबी उन्हें अपने घर में ले आया था। वह उनका अस्थायी बेटा बन गया था और कहता था कि मैं तुम्हारा असली बेटा ढूँढ़ दूँगा। यह सोचकर सीता देवी हँसी। सीता देवी यह सोचकर हँसी कि उनका बेटा नहीं खोया था—बेटे ने अपनी माँ को खो दिया था। हरीश जब छोटा था, तब भी यही करता था। जो चीज़ उसे अच्छी नहीं लगती थी, उसे वह खो देता था। उसे बचपन में खाकी रंग पसन्द नहीं था। एक दिन वह स्कूल से धारीदार जांघियाँ पहने लौटा था और उसने ऐलान किया था, ‘‘मैं तैरना सीखने निकर उतारकर तालाब में उतरा। जब बाहर आया तो निकर गायब था।’’ हरीश के पिता ने कहा था कि खोयी निकर की पुलिस में एफ। आई। आर। नहीं होती। तो क्या मैं आज हरीश का खाकी निकर हो गयी ?
क्या मैं इस उम्र में तैरना सीखने के बहाने तालाब में डूब सकती हूँ ? सीता देवी ने सोचा।
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